डाल आँखों पे नींद की चादर ,रत चुपके से ढल रही होगी
चूम दरिया पहाड़ झील जमीं चांदनी भी पिघल रही होगी
कल हवाओं ने झूम कर जो गुनगुनाया था
बरसों पहले लिखी मेरी ग़ज़ल रही होगी
उसकी आँखों में मेरा अक्स अभी बाकी है
मेरी आँखों में झांक बन संवर रही होगी
उसको मेरे बगैर चलने की आदत थी नहीं
खुद ही गिर गिर के वो खुद ही संभल रही होगी
नींद गर मुझको न आये तो उसे क्यूं आये
वो भी मेरी तरह करवट बदल रही होगी
रात कितनी भी हो मनहूस मेरे घर लेकिन
रात आगोश में उसके मचल रही होगी
जंहा थे हम मिले और थे जंहा से हम बिछड़े
आज भी उस जगह एक शमाँ जल रही होगी .....
१२ /०१ /२०१०
Tuesday, January 12, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment