Monday, January 11, 2010

Alfaaz

दो घड़ी और जियें दिल में ये हसरत न रही
आज जब दुनिया में इंसान की कीमत न रही
तंग दिल वालों की क्या बात करे हम यारों
इस ज़माने के शरीफों में शराफत न रही
देख जिसको निगाहें बर्फ सी जम जाएँ कहीं
बजारे हुस्न में अब ऐसी नजाकत न रही
आज भी देख कर नज़रें झुका चल देते हैं
कैसे कह दे की उन्हें हम से मोहब्बत न रही
बंद कमरों में तोड़ते हैं रिश्ते रोज़ मगर
जलसों में कहते है अब कोई खिलाफत न रही
                                                                ११/०१/१०

shahar

चलो शहर से चलें ये शहर हसीं नहीं

यहाँ का मौसम भी पहले से बहतरीन नहीं

लोग चलते नहीं उड़ते हैं यहाँ शामो सहर

हो जैसे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

गैर की छोडिये अपनों पे सितम ढाते हैं

यह वोह काफिर हैं जिन्हें खुद पे भी यकीन नहीं

लोग जो भीड में खुद को भी खपा देते हैं

मैं ऐसी भीड़ का कोई तमाशबीन नहीं

सुबह भी फीकी है है शाम भी फीकी यारों

गाँव सा इक भी मौसम यहाँ रंगीन नहीं .

                                                          ११/०१/१०