दो घड़ी और जियें दिल में ये हसरत न रही
आज जब दुनिया में इंसान की कीमत न रही
तंग दिल वालों की क्या बात करे हम यारों
इस ज़माने के शरीफों में शराफत न रही
देख जिसको निगाहें बर्फ सी जम जाएँ कहीं
बजारे हुस्न में अब ऐसी नजाकत न रही
आज भी देख कर नज़रें झुका चल देते हैं
कैसे कह दे की उन्हें हम से मोहब्बत न रही
बंद कमरों में तोड़ते हैं रिश्ते रोज़ मगर
जलसों में कहते है अब कोई खिलाफत न रही
११/०१/१०
Monday, January 11, 2010
shahar
चलो शहर से चलें ये शहर हसीं नहीं
यहाँ का मौसम भी पहले से बहतरीन नहीं
लोग चलते नहीं उड़ते हैं यहाँ शामो सहर
हो जैसे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
गैर की छोडिये अपनों पे सितम ढाते हैं
यह वोह काफिर हैं जिन्हें खुद पे भी यकीन नहीं
लोग जो भीड में खुद को भी खपा देते हैं
मैं ऐसी भीड़ का कोई तमाशबीन नहीं
सुबह भी फीकी है है शाम भी फीकी यारों
गाँव सा इक भी मौसम यहाँ रंगीन नहीं .
११/०१/१०
यहाँ का मौसम भी पहले से बहतरीन नहीं
लोग चलते नहीं उड़ते हैं यहाँ शामो सहर
हो जैसे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
गैर की छोडिये अपनों पे सितम ढाते हैं
यह वोह काफिर हैं जिन्हें खुद पे भी यकीन नहीं
लोग जो भीड में खुद को भी खपा देते हैं
मैं ऐसी भीड़ का कोई तमाशबीन नहीं
सुबह भी फीकी है है शाम भी फीकी यारों
गाँव सा इक भी मौसम यहाँ रंगीन नहीं .
११/०१/१०
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