Saturday, January 30, 2010

mukti

एक दिन उस पथ पर
जिस पथ पर मिलें होंगे
पहले भी /हजारों लाखों देंह
हुआ होगा व्यापार
परस्पर देंहो के बीच
मिले थे हम ...
अपनी-अपनी देहों को
अपने काधों पर लटकाए
तुम्हे जो चाहिए था
मेरी देह में था
मुझे जो चाहिए था
वो तुम्हारी देह में
..और इस तरह /हमारे बीच भी
सदियों से चला आ रहा व्यापार
हुआ था गुपचुप ...
अपनी-अपनी देहों को
अपने कांधो पर लटकाए ...
और फिर हम लौट चले थे
अपने-अपने घर की ओर
परस्पर देहों का  आदान प्रदान कर
जिसे हमने टाँगा था
घर की दीवार पर
छत की मुंडेर पर
...और घर के बाहरखड़े
गुलमोहर के पेड़ पर
हम कहाँ जन पाए थे /उस क्षण
होती है देहों की भाषा
देहों का आकाश
देहों का धरातल भी ...
हम कहाँ जान पाए थे
...देहों के भीतर
होती है एक कोयल
एक झरना ...
एक शिखर ...
और ...जब हम जान पाए तो देखा
हमारे कांधो पर देह नहीं
एक पुस्तक है /संवेदनाओ की
जिसमें से झर रहे है
कुछ शब्द ...
शब्दों से संगीत
संगीत से प्रेम ...
और प्रेम से
मुक्ति ..........//
                     ३० /०१ /२०१०

1 comment:

Prem Pradeep said...

lovely -----what a thought .
please be continue

varunendra pandey